Monday, December 1, 2014

50. यह हत्या नहीं स्त्रियों का सामूहिक नरसंहार है

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छत्तीसगढ़ में नसबंदी के दौरान 14 स्त्रियों की मौत ने एक बार फिर सोचने को मजबूर किया कि हमारे देश में आम स्त्रियों की कीमत क्या है। न उनकी ज़िन्दगी का कोई मोल है न उनकी मृत्यु का कोई अर्थ ! हम ज़बरदस्त गैरबराबरी से जूझ रहे ऐसे संवेदनहीन और असभ्य समाज का हिस्सा जा रहे हैं जो वर्चस्व, सत्ता और प्रतिस्पर्धा को ही एक मात्र जीने का मूल मंत्र बना चुका है। अजीब ये है कि इन सबमें उसके सामने केवल स्त्री खड़ी है। 

छत्तीसगढ़ के इस हादसे के परिपेक्ष में विषयों पर विशेष रूप से सोचना होगा। पहला यह कि स्वास्थ्य शिविर में जाकर इलाज कराने वाला तबका कौन है। यह समाज का वो वर्ग है जिसे सरकारी खानापूर्ति की भरपाई के लिए लक्ष्य-पूर्ति का साधन बना दिया जाता है। असुरक्षित और अस्वस्थ माहौल में सीमित संसाधनों के द्वारा चिकित्सा करना या शल्य क्रिया को अंजाम देना निश्चय ही अमानवीय अपराध है। अजीब है कि यह अपराध वैधानिक तरीके से हो रहा है क्योंकि शिविरों के हालात का अंदाजा जनसाधारण को है। निर्धन जनता या ऐसे क्षेत्र के निवासी जहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है, इन स्वास्थ्य केन्द्रों और शिविरों पर निर्भर होते हैं और अपनी जान जोख़िम में डालने को मजबूर होते हैं। 
  
समाज कल्याण से जुड़ी सरकारी योजनाओं के तहत लगने वाले नसबंदी शिविरों का सच किसी से छिपा नहीं है। इन शिविरों में एक-एक दिन में सौ-सौ ऑपरेशन किए जाते हैं । एक वरिष्ठ चिकित्सक होता है जिसके अंतर्गत कई प्रशिक्षु होते हैं जो यह काम निबटाते हैं। यह शिविर जहाँ भी लगता है वहाँ न तो आधुनिक ऑपरेशन थियेटर होता है न आपातकालीन चिकित्सा के लिए कोई यन्त्र न ही स्वच्छ वातावरण। यह हमारे भारत का सच है कि इन शिविरों में सिर्फ वही स्त्रियाँ या पुरुष जाते हैं जो आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर होते हैं। जिनकी आर्थिक स्थिति ज़रा भी ठीक हो, भले ही वह दिहाड़ी मजदूर ही क्यों न हो, वह भी निजी अस्पताल में ही जाकर इलाज कराता है। इस सच से न तो हमारे देश की जनता इंकार कर सकती है न ही सरकार।

दूसरा विषय यह है जिस पर न सिर्फ स्त्रियों को सोचना होगा बल्कि हमारे समाज और हमारे पुरुष वर्ग को भी सोचना होगा। आख़िर स्त्रियाँ ही आबादी बढ़ाने और रोकने का दंड क्यों पाती है? औरतों की ही नसबंदी क्यों, पुरुष की क्यों नहीं? क्या यह नसबंदी पुरुषों के लिए ज्यादा सुरक्षित और कारगार नहीं है? क्यों आज भी भारत की तमाम वर्ग की महिलाएँ ही नसबंदी कराती हैं पुरुष नहीं? स्त्रियों की नसबंदी का ऑपरेशन पुरुषों की तुलना में जटिल और मुश्किल होता है। जबकि पुरुष की नसबंदी स्त्रियों की तुलना में बहुत सरल है जिसमें न तो कोई जटिल प्रक्रिया है न किसी तरह का कोई ख़तरा न ही ऑपरेशन के बाद लम्बे अवधि तक विश्राम की आवश्यकता।      

आख़िर औरतों पर ही संतानोत्पत्ति और नसबंदी का सारा कारोबार आधारित क्यों है? क्या बिना पुरुष के स्त्रियाँ बच्चा पैदा करती हैं? जब पुरुष के बिना संतानोत्पत्ति संभव नहीं है फिर नसबंदी पुरुष क्यों नहीं कराते? न सिर्फ अशिक्षित बल्कि शिक्षित पुरुषों का भी मानना है कि नसबंदी कराने से पौरुष ताकत में कमी आ जाती है। जबकि वैज्ञानिक रूप से साबित हो चुका है कि यह सच नहीं सिर्फ अज्ञानता है। पुरुष नसबंदी के कई फायदों में एक अहम् फायदा यह भी है कि किसी कारण से यदि फिर से संतान चाहे तो संतान संभव है। लेकिन स्त्री के मामले में ऐसा संभव नहीं होता है।

हमारी परम्पराओं का हमारे जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है । अपनी पढ़ाई के दौरान मुझे परिवार नियोजन विषय पर कुछ महिलाओं से बात चीत करने का मौक़ा मिला था जिसमें एक स्तब्ध करने वाला सच मेरे सामने आया। एक स्त्री ने बताया कि उसके पति के नसबंदी कराने के बाद भी उसे बच्चा हुआ। डॉक्टर ने कहा कि सामान्यतः ऐसा नहीं होता है लेकिन कभी-कभी कुछ अपवाद हो जाते हैं, जिसमें वे भी हैं। डॉक्टर के कहने के बाद भी उसका पति उसके चरित्र पर शक करता रहता है। एक दूसरी स्त्री जो काफी पढ़ी लिखी थी उसका कहना था कि अगर किसी कारण उसके पति का नसबंदी ऑपरेशन असफल हुआ और वह गर्भवती हो गई तो आजीवन उसे शक से देखा जाएगा। इससे बेहतर है कि स्त्री स्वयं ही ऑपरेशन करा ले। एक छोटा सा तो ऑपरेशन है आजीवन एक डर और इल्जाम से तो बचा जा सकता है। एक अविवाहित स्त्री जो बहुत आधुनिक थी, का कहना था दो बच्चे के बाद ऑपरेशन करा लो, क्या पता पति का ऑपरेशन सफल न हुआ तो एक और बच्चे का बोझ सहो, या फिर गर्भपात काराओ, इतने झमेले से तो अच्छा है कि स्त्री ही ऑपरेशन करा कर हमेशा के लिए एक झंझट से मुक्त हो जाए और पति के शक से भी छुटकारा रहेगा। यूँ तो सभी स्त्रियों की राय यही थी कि स्त्री को ही ऑपरेशन करा लेना चाहिए अन्यथा फिर से गर्भवती होना या गर्भपात कराना पड़ सकता है।  

इन सभी पहलुओं पर विचार करें तो कहीं न कहीं हमारा समाज, हमारी सोच, हमारी मान्यताएँ और परम्पराएँ इन सबके लिए दोषी है। हमारा पुरुष समाज जो स्त्री का चरित्र उसके बदन में खोजता है और उसके बदन पर ही अपना चरित्र गँवाता है फिर भी उस स्त्री के लिए एक ज़रा सा जहमत उठाना नहीं चाहता; जबकि पुरुष नसबंदी में न पीड़ा होती है न वक़्त लगता है, ऑपरेशन के एक घंटे के बाद ही पुरुष काम पर वापस जा सकता है। सरकारी प्रचार प्रसार के बाद भी पुरुष इस बात को समझ नहीं पाता कि नसबंदी के बाद भी उसकी यौन-शक्ति वैसी ही रहेगी। कोई भी पुरुष सहजता से ऑपरेशन नहीं कराता। यह सिर्फ अशिक्षित समाज का चेहरा नहीं बल्कि शिक्षित और प्रगतिशील बिरादरी का भी चेहरा है।

हमारे समाज की संकीर्ण मानसिकता का परिणाम है कि न सिर्फ वे 14 स्त्री मारी गई बल्कि 14 परिवार बिखर गया और उनके बच्चे माताविहीन हो गए। इस घटना को दुर्घटना या लापरवाही कह कर आरोपी चिकित्सकों को कटघरे में खड़ा किया जाए या कानूनी सज़ा दी जाए या फिर मृत स्त्रियों के परिवार को मुआवजा दिया जाए; पर क्या इन सबसे उन मृत औरतों को वापस लाया जा सकता है ? क्या स्त्रियों के साथ हो रहे इन अपराधों और अमानवीय अत्याचारों का खात्मा कभी संभव है?  क्या यूँ ही शोषित वर्ग की शोषित स्त्रियों की बली चढ़ती रहेगी? 

- जेन्नी शबनम (1. 12. 2014)

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Tuesday, October 7, 2014

49. मेरे गाँधी, अपने गाँधी

महात्मा गाँधी के बारे में जब भी सोचती हूँ तो एक अजीब-सा आकर्षण होता है। उन्हें जितना पढ़ती हूँ और भी ज्यादा जानने-समझने की उत्कंठा होती है। न जाने क्यों गाँधी जी का व्यक्तित्व सदैव चुम्बकीय लगता है मुझे। इतना सहज और सरल जीवन यापन करने वाला वृद्ध, महान चिन्तक ही नहीं बल्कि हमारे देश के सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा का मार्गदर्शक भी है। 

कुछ माह के लिए जब मैं शान्तिनिकेतन में रही थी तब वहाँ टैगोर के सभी पाँच घरों में घूमने गई; जिनमें से एक घर 'श्यामली' है, जो पूर्णतः मिट्टी का बना है। जब गाँधी जी शान्तिनिकेतन आए थे तब इसी घर में ठहरे थे। उस समय की स्मृतियाँ गाँधी जी और रबिन्द्रनाथ टैगोर की तस्वीर के रूप में वहाँ अब भी संजोई हुई है। श्यामली में जब पहली बार मैं गई तो लगा जैसे गाँधी जी यहीं कहीं आस पास होंगे और अचानक आकर कहेंगे ''बहुत थक गई होगी, हाथ पाँव धो लो, थोड़ा फल खाकर थोड़ी देर आराम कर लो, फिर उठकर चरखा कातेंगे।'' 

मुझे मालूम है गाँधी जी को पूर्णतः समझ पाना मेरे लिए असंभव है। निःसंदेह अपने पिता के कार्य और विचार को जानने और समझने के कारण ही गाँधी जी को इतना भी समझ पाई हूँ। जब भी गाँधी जी के बारे में सोचती हूँ तो मुझे मेरे पिता याद आते हैं। यूँ मेरे पिता की स्मृतियाँ अब क्षीण होने लगी हैं, परन्तु जो भी यादें शेष हैं उनमें मेरे पिता के विचार, सिद्धांत और जीवन शैली है, जो वक़्त-वक़्त पर मुझे राह दिखाते रहे हैं। सच है कि गाँधीवाद की मान्य परिभाषा के हिसाब से मैं गाँधीवादी नहीं, लेकिन मेरी नज़र में जो गाँधीवाद है उसके हिसाब से जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण गाँधीवादी है। मुमकिन है मेरे पिता का प्रभाव मुझपर पड़ा हो और शायद इसी कारण सोचने का तरीका भी ऐसा हो गया हो। 

मेरे पिता जैसे जीते थे वही उनका विचार था और जो उनका विचार था वही उनका जीवन जीने का तरीका। आचार्य कृपलानी, आचार्य विनोबा भावे, प्रो. गोरा आदि के नज़दीक रहे मेरे पिता पूरी तरह गाँधीवादी विचार के समर्थक थे। उनका गाँधीवादी सोच, सोच-विचारकर अपनाई गई जीवन शैली नहीं थी बल्कि उनके जीवन जीने का तरीका था जो उनके अपने विचार से प्रेरित था।           
मेरे पिता गाँधी जी के विचार से कब क्यों और कैसे प्रभावित हुए, यह तो मालूम नहीं। लेकिन मेरी दादी से अपने पिता के बचपन की कहानी जब सुनती तो आश्चर्य होता था। मेरे पिता बचपन से ही ऐसे जीवन जीते थे जिसे गाँधीवाद कहा जा सकता है। चाहे वो खानपान हो, पहनावा हो, समाज कल्याण की बात हो या फिर अधिकार और कर्तव्य की बात। मेरे पिता का अपना विचार था और जीवन जीने का अपना तरीका जो बहुत कुछ गाँधी जी के विचारों-सा था। मेरे पिता कई बार लोगों के द्वारा असमाजिक भी घोषित किए गए। क्योंकि कुछ ऐसी परम्पराएँ जो उनके मुताबिक़ अनुचित थीं, किसी भी क़ीमत पर वे उसमें हिस्सा नहीं लेते थे। सड़ी-गली परम्पराओं के विरुद्ध वे सदैव रहते थे। प्राकृतिक चिकित्सा को वे अपने जीवन में उतार चुके थे। मेरे पिता कई बार लोगों की नज़र में उपहास का कारण भी बनते थे, क्योंकि उस समय मेरे पिता का सोच आम परम्परावादी लोगों के सोच से बिलकुल अलग होता था। ख़ुद खादी पहनते रहे और घर में भी सभी का खादी पहनना अनिवार्य था। सादा जीवन उच्च विचार के वे अनुयायी थे और दिखावा से हमेशा दूर रहते थे।

मेरे पिता के अपने लिए बहुत सारे नियम थे। वे चाहते थे कि हम सभी उन नियमों को माने लेकिन जबरन नहीं; बल्कि हमारा सोच ऐसे ही विकसित हो मेरे अपने बचपन में कई बार मुझे अजीब लगता था और कई बार ग़ुस्सा भी आता था जंक-फूड खाने की मनाही थी ज़रूरत से ज्यादा कपड़े हमारे पास नहीं होते थे गाँव के स्कूल से मेरे भाई की शिक्षा हुई, और मैं भी कुछ वर्ष गाँव में रहकर पढ़ाई की गाँव में जैसे मेरे पिता की आत्मा बसती थी गाँव के लोगों पर मेरे पिता के विचार का इतना प्रभाव पड़ा कि कई लोगों ने परिवार नियोजन को अपनाया था। उन्होंने गाँव में स्कूल खुलवाया तो गाँव के लोग शिक्षा की ओर अग्रसर हुए  उन्होंने जाति और वर्ग भेद को मिटाया अंधविश्वास को प्रमाण के साथ साबित कर उसके उन्मूलन की बात वे करते थे मेरे पिता के विचारों में समाजवाद, साम्यवाद, गाँधीवाद और नास्तिकता का संयोग था। वे शुद्ध शाकाहारी थे और इसके प्रसार में सदैव लगे रहते थे उनके ही अथक प्रयास से मेरे गाँव में बिजली आई उन्होंने गाँव में लाइब्रेरी की स्थापना की आधुनिक वैज्ञानिक तरीके से खेती करने के लिए ग्रामीणों के बीच कई कार्यक्रम का आयोजन किया

गाँधी जी के लिए जितना महत्वपूर्ण था देश के प्रमुख मुद्दों पर चर्चा करना उतना ही महत्वपूर्ण था किसी पशु की देखभाल करना या फिर किसी बच्चे के साथ खेलना या किसी आम रीब की कोई समस्या सुनना जीवन का हर काम गाँधी जी के लिए समान रूप से महत्व रखता था गाँधी जी कहते थे ''ईश्वर सत्य है'', परन्तु प्रोफ़ेसर गोरा से इस पर चर्चा और बहस के बाद गाँधी जी ने कहा ''सत्य ही ईश्वर है'' मेरे अपने विचार से गाँधी जी का अपनी समझ को बदलना एक क्रान्ति जैसी बात है, जिसे आज हर इंसान को समझना चाहिए  

महात्मा गाँधी युग पुरुष थे सत्य अहिंसा के मार्ग पर चलकर सम्पूर्ण मानव और समाज के उत्थान की अवधारणा और सर्वोदय की कामना गाँधी जी का लक्ष्य था गाँधी जी न सिर्फ महान चिन्तक थे बल्कि मानवतावादी भी थे जीव जंतुओं के प्रति प्रेम और जाति धर्म से परे इंसानियत धर्म के अनुयायी गाँधी जी सदैव ख़ुद पर परीक्षण और प्रयोग करते रहे और अंतिम सत्य की तलाश करते रहे। मेरे विचार से जिसे गाँधीवाद कहा गया वह कोई कठिन नियम या परिभाषित सोच नहीं है, बल्कि जिन विचारों को मान कर गाँधी जी सहज जीवन जीते थे वही गाँधीवाद कहलाया। यूँ गाँधी जी यह कभी नहीं चाहते थे कि गाँधीवाद कह कर कोई ख़ास नियम बनाया जाए जो लोगों पर प्रभावी हो गाँधी जी शुरू से आत्म चिन्तन और आत्म नियंत्रण की बात करते रहे सत्य और अहिंसा उनके दो ऐसे शस्त्र थे जिनके द्वारा कोई भी जंग जीतना कठिन भले हो नामुमकिन नहीं होताभारत की आज़ादी का जंग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है गाँधी जी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने आज़ादी से पूर्व और आज़ादी के बाद थे गाँधी जी मनुष्य की क्रियाशीलता पर ज्यादा जोर देते थे और मनुष्य का समग्र उत्थान चाहते थे

गाँधी जी के कुछ कथन जो मुझे प्रभावित करते हैं:

''अधभूखे राष्ट्र के पास न कोई धर्म, न कोई कला और न कोई संगठन हो सकता है'' (महात्मा, भाग- 2, पृष्ठ- 251) 

''अधिकारों की प्राप्ति का मूल स्रोत कर्त्तव्य है'' (महात्मा, भाग- 2, पृष्ठ- 367)


''गाँधीवाद जैसी कोई विचारधारा नहीं है।'' ''गाँधीवाद नाम की कोई वस्तु है ही नहीं और न मैं अपने पीछे कोई सम्प्रदाय छोड़ जाना चाहता हूँ। मेरा यह दावा भी नहीं है कि मैंने कोई नए तत्व या सिद्धांत का आविष्कार किया है। मैंने तो केवल जो शाश्वत सत्य है, उसको अपने नित्य के जीवन और प्रश्नों पर अपने ढंग से उतारने का प्रयास किया है।'' (कहानियों में सत्य की साधना: डॉ0 विनय)

मुझे ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं हमसे बहुत बड़ी चूक हुई है। अन्यथा आज़ादी के बाद समाज का इतना रुग्ण रूप देखने को न मिलता गाँधी और गाँधी के सिद्धांतों को एक सिरे से ख़ारिज कर देने का परिणाम है कि आज मनुष्य इंसानियत की हर कसौटी से बाहर निकल चुका है हिंसा और असहिष्णुता का ख़ामियाजा आज पूरा देश भुगत रहा है समाज में न स्त्री का कोई सम्मान है न आम आदमी का हालात बाद से बदतर होते जा रहे हैं संवेदनाएँ धीरे-धीरे मर रही हैं। हर आदमी डरा हुआ है और दूसरों को डरा रहा है अधर्म अपने परकाष्ठा पर पहुँच चुका है। पेट में भोजन नहीं, रहने को मकान नहीं लेकिन धर्म जाति के नाम पर आज का युवा मरने मारने पर आमादा है। भूख, रीबी, शिक्षा, सभी का बजारीकरण और राजनीतिकरण हो चुका है

गाँधी जी के विचार, सिद्धांत और सोच को एक बार पुनः स्थापित करने की ज़रुरत है ताकि एक सुखद, खुशहाल और संतुलित समाज बन सके। गाँधी जी ने कहीं पर कहा था ''अगर बिना हिंसा के साम्यवाद आता है तो उसका स्वागत है''। मेरा अपना विचार और विश्वास है कि अहिंसक साम्यवादी समाज से ही एक निपुण, पूर्ण और सफल देश बन सकता है जहाँ ऊँच-नीच और स्त्री-पुरुष का भेदभाव न होगा, पशु-पक्षी को भी जीने का हक़ मिलेगा; इसके लिए गाँधी जी को एक बार फिर से जीवन में उतारना होगा। गाँधी जी की प्रासंगिकता को नाकारा नहीं जा सकता है और यही एक मात्र अंतिम उपाय बचा है जिससे हम अंतिम लक्ष्य पर पहुँच कर अमन-चैन से जीवन यापन कर सकते हैं।

- जेन्नी शबनम (2. 10. 2014)

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Thursday, July 24, 2014

48. लोकार्पण - 'सर्वोदय ऑफ़ गाँधी'


18 जुलाई 2014 को मंडेला की 96वीं जयन्ती के मौके पर मेरे पिता स्वर्गीय डॉ.के.एम.प्रसाद की पुस्तक 'सर्वोदय ऑफ़ गाँधी' के नवीन संस्करण का लोकार्पण गाँधी स्मृति एवं दर्शन समिति, नई दिल्ली में हुआ । गौरतलब है कि 18 जुलाई को मेरे पिता जो भागलपुर विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर थे, की 36 वीं पुण्यतिथि भी थी । इसी पुस्तक पर एक चर्चा राजेंद्र भवन, नई दिल्ली में 19 जुलाई को रखी गई थी । इस पुस्तक को वाराणसी के भारती प्रकाशन ने प्रकाशित किया है ।

गाँधी दर्शन समिति में हुए कार्यक्रम में इस अवसर पर 'गाँधी का सर्वोदय' और 'मंडेला का रंगभेद के खिलाफ़ आन्दोलन' विषय पर एक गोष्ठी का भी आयोजन किया गया था । नेल्सन मंडेला को उनके रंगभेद के खिलाफ़ आन्दोलन के लिए याद किया गया साथ ही मेरे पिता की पुस्तक 'सर्वोदय ऑफ़ गाँधी' का लोकार्पण किया गया जिसे 30 वर्ष बाद पुनः प्रकाशित किया गया है । इस अवसर पर गाँधी स्मृति एवं दर्शन समिति की निदेशक सुश्री मणिमाला, खादी बोर्ड के अध्यक्ष श्री लक्ष्मी दास, प्रख्यात गाँधीवादी श्री शिव कुमार मिश्र तथा मेरी माँ श्री मती प्रतिभा सिन्हा जो इंटर स्कूल की अवकाशप्राप्त प्राचार्या तथा समाज सेवी हैं, ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए । संगोष्ठी का संचालन डॉ राजीव रंजन गिरी ने किया ।


संगोष्ठी को संबोधित करते हुए मणिमाला जी ने कहा कि ''मंडेला की जयंती पर प्रोफसर प्रसाद की पुस्तक का लोकार्पण बेहद सुखद है, एक मार्क्सवादी होने के बावजूद वे गाँधीवादी बने रहे ।'' उन्होंने यह भी कहा कि ''मजबूरी का नाम गाँधी कहा जाता है जबकि मजबूती का नाम गाँधी है । गाँधी अगले एक हज़ार साल तक भी प्रासंगिक रहेंगे ।'' 

श्री लक्ष्मीदास ने कहा कि ''अमर होने के लिए मरना ज़रूरी होता है ।'' उन्होंने कहा कि इस पुस्तक से सर्वोदय साहित्य में एक और नाम जुड़ गया है । गाँधी जी सदैव कहते थे कि ईश्वर ही सत्य है, परन्तु प्रोफ़ेसर गोरा जो बहुत बड़े नास्तिक थे, से इस विचार पर बहस और समझ के बाद गाँधी जी ने कहा ''सत्य ही इश्वर है''।  

श्री शिव कुमार मिश्र ने सर्वोदय के अर्थ को गाँधीवाद और मार्क्सवाद से जोड़ कर इसकी विशेषता की व्याख्या की । श्री मिश्र ने स्पष्ट कहा कि गाँधीवाद और मार्क्सवाद का अंतिम लक्ष्य एक है, बस रास्ते अलग हैं । 

अंत में मेरी माँ श्री मती प्रतिभा सिन्हा ने अपने जीवन के अनुभव को सभी से साझा किया । मेरे पिता के सिद्धांत, आदर्श तथा जीवन जीने के नियमों का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि ''मेरे पति ज़िन्दगी भर गाँधी के आदर्शों पर चलने के लिए कुर्बानियाँ देते रहे । उनके आदर्शों के कारण न सिर्फ परिवार बल्कि समाज में भी उनकी आलोचना होती थी । गलत रीति-रिवाजों और परम्पराओं का सदैव उन्होंने परित्याग किया । वे जो बोलते थे वही करते थे । अपनी और परिवार के सदस्यों की बड़ी से बड़ी बीमारी के ईलाज के लिए प्राकृतिक चिकित्सा ही करते थे । गाँधी को उन्होंने न सिर्फ अपने जीवन में बल्कि अपने परिवार और अपने छात्रों में रचा बसा दिया था ।''

19 जुलाई 2014 को राजेंद्र भवन में इस पुस्तक पर चर्चा की गई । राजेंद्र भवन के अध्यक्ष श्री बिमल प्रसाद, आन्ध्र प्रदेश एवं कर्नाटक के भूतपूर्व राज्यपाल श्री टी.एन.चतुर्वेदी, एन.सी.इ.आर.टी से श्री जवाहर पाण्डेय, पत्रकार श्री आनद किशोर सहाय ने पुस्तक और मेरे पिता की जीवनी पर चर्चा की ।

इन दोनों अवसरों पर जिन गणमान्य लोगों ने शामिल होकर आयोजन को सफल बनाया उन सभी का हार्दिक धन्यवाद ।

- जेन्नी शबनम (24. 7. 2014)

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Saturday, March 8, 2014

47. तेरे शाह की कंजरी

''ओ अमृता! देख, तेरे शाह की कंजरी मेरे घर आ गई है। तेरी शाहनी तो ख़ुश होगी न! उसका शाह अब उसके पास वापस जो आ गया है। वो देख उस बदज़ात को तेरे शाह से ख़ूब ऐंठे और अब मेरे शाह की बाँहें थाम ली है। नहीं-नहीं तेरी उस कंजरी का भी क्या दोष, मेरे शाह ने ही उसे पकड़ लिया है। वो करमजली तो तब भी कंजरी थी जब तेरे शाह के पास थी, अब भी कंजरी है जब मेरे शाह के पास है।'' 
 
झिंझोड़ते हुए मैं बोल पड़ी- क्या बकती है? कुछ भी बोलती है। तेरा शाह ऐसा तो नहीं। देख तेरे लिए क्या-क्या करता है। गाड़ी-बँगला, गहना-ज़ेवर, नौर-चाकर... फिर भी ऐसा बोलती है तू। ज़रूर तुझे कुछ गलतफ़हमी हुई है। अमृता को पढ़ते-पढ़ते कहीं तू उसकी कहानियों को अपने जीवन का हिस्सा तो नहीं मान रही है। किसी झूठ को सत्य मानकर अपना ही जी जला रही है तू। वो कहानी है पगली, तेरी ज़िन्दगी नहीं 
 
फफककर रो पड़ी वह। कहने लगी- तू तो बचपन से जानती है न मुझे। जब तक कुछ पक्का न जान लूँ तब तक यक़ीन नहीं करती। और यह सब बोलूँ भी तो किससे? जानती हूँ वो कंजरी मेरा घर बार लूट रही है, लेकिन मैं कुछ बोल भी नहीं सकती। कोई शिकायत न करूँ इसलिए पहले ही मुझपर ऐसे-ऐसे आरोप मढ़ दिए जाते हैं कि जी चाहता है ख़ुदकुशी कर लूँ। तू नहीं जानती उस कंजरी के सामने कितनी जलील हुई हूँ। वो उसका ही फ़ायदा उठा रही है। पर उसका भी क्या दोष है। मेरी ही तक़दीर... अपना ही सिक्का खोटा हो तो...!  
 
मैं हतप्रभ ! मानों मेरे बदन का लहू जम गया हो। यूँ लगा जैसे कोई टीस धीरे-धीरे दिल से उभरकर बदन में पसर गई हो। न कुछ कहते बना न समझते न समझाते। दिमाग मानो शून्य हो गया हो। मैं तो तीनों को जानती हूँ, किसे दोष दूँ? अपनी उस शाहनी को जिसे बचपन से जानती थी या उसके शाह को या उसके शाह की उस कंजरी को?  
 
याद है मुझे कुछ ही साल पहले सुबह-सुबह वह मेरे घर आई थी। उसके हाथ में अमृता प्रीतम की लिखी कहानियों का एक संग्रह था, जिसकी एक कहानी 'शाह की कंजरी' पढ़ने के लिए वो मुझे बार-बार कह रही थी और मैं बाद में पढ़ लूँगी कहकर उस किताब को ताखे पर रखकर भूल गई। एक दिन फिर वो सुबह-सुबह मेरे घर आई, और उस कहानी का जिक्र किया कि मैंने पढ़ी या नहीं। मेरे न कहने के बाद वो रुआँसी हो गई। फिर कहने लगी कि अभी-के-अभी मैं वो कहानी पढूँ तब तक वो रसोई का मेरा काम सँभाल देगी। मुझे भी अचरज हुआ कि आख़िर ऐसा भी क्या है उस कहानी में। यूँ अमृता को काफ़ी पढ़ा है मैंने और उन्हें पढ़कर ही लिखने की प्रेरणा भी मिली है; पर इस कहानी में ऐसा क्या है कि मुझे पढ़ाने के लिए वह परेशान है। मुझे लगा कि शायद कुछ अच्छा लिख सकूँ इसलिए पढ़ने के लिए वह मुझे इतना ज़ोर दे रही है।  
 
कहानी जब पढ़ चुकी तो उसने मुझे पूछा कि कैसी लगी कहानी। मैंने कहा कि बहुत अच्छी लगी 'शाह की कंजरी'। उसकी आँखों में पानी भर आया और बिलख-बिलख कर रोने लगी। मैं भी घबरा गई कि बात बेबात ठहाके लगाने वाली को क्या हो गया है। अपने शाह और उसकी कंजरी के लिए जीभरकर अपना भड़ास निकालने के बाद वह अपनी तक़दीर को कोसने लगी। अब तक मैं भी अपने को सँभाल चुकी थी। उसे रोने दिया जीभर कर। क्योंकि रोने के अलावा न वह कुछ कर सकती थी, न मैं कोई झूठी तसल्ली दे सकती थी। 
 
सोचती हूँ, तक़दीर भी कैसा खेल खेलती है। अमृता को पढ़ते-पढ़ते वह उसकी कहानी की पात्र ही बन गई जैसे। अमृता की शाहनी तो पूरे ठसक से अपने घर में रहती थी, और कंजरी शाह के पैसे से होटल में। पर मेरी यह शाहनी अपने घर में रहकर भी घर में नहीं रहती है क्योंकि उसके घर पर उसका मालिकाना तो है मगर उसके शाह पर कंजरी का मालिकना है और कंजरी पूरे हक़ और निर्लज्जता से उसी घर में रहती है। क्योंकि शाह ने वह सारे अधिकार उस कंजरी को दे दिए हैं, जिसे सिर्फ़ शाहनी का होना था। जब उसका मालिक ही बंधक हो तो... उफ़! सच, कितनी बदनसीब है वो। 

मेरा मन करता है कि चीख-चीख कर कहूँ- ओ अमृता! तू अपने शाह को कह कि अपनी कंजरी को लेकर दूर चला जाए। मेरी शाहनी को तेरा ऐसा शाह मंज़ूर नहीं। भले वो नसीबों वाली नहीं पर इतनी बेग़ैरत भी न बना उसे। तेरे शाह ने ही एक-एक कर के सारे पर क़तर दिए उसके, और अब कहता है कि उसके पर नहीं इसलिए उसे पर वाली कंजरी चाहिए।

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2014)

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Thursday, January 30, 2014

46. 'जय हो' की जय हो !


सलमान खान के फिल्मों की एक ख़ास विशेषता है कि इसे हर आम व ख़ास आदमी अपने परिवार के साथ देख सकता है। सलमान द्वारा अभिनीत हर फिल्म से हमें उम्मीद होती है - धाँसू डायलॉग, हँसते गुदगुदाते हुए डायलॉग, जोरदार एंट्री, जबरदस्त फाइट, नायिका के साथ स्वस्थ प्रेम दृश्य, डांस में कुछ ख़ास नया स्टेप्स, गीत के बोल और धुन ऐसे जो आम आदमी की जबान पर चढ़ जाए। सोहेल खान ने अपनी फिल्म 'जय हो' में लगभग इन सभी बातों का ध्यान रखा है।

'जय हो' का नायक जय एक ईमानदार, संजीदा और भावुक इंसान है। उसका सामना सामाजिक व्यवस्था के ऐसे क्रूर और संवेदनहीन स्वरूप से बार-बार होता है जिससे आम आदमी त्रस्त है। उसकी सेना की नौकरी सिर्फ इस लिए चली जाती है; क्योंकि आतंकवादियों द्वारा बंधक बनाए गए बच्चों को छुड़ाने के लिए वह अपने उच्च अधिकारियों के आदेश की अवहेलना करता है। नौकरी छूट जाने के बाद वह मोटर गैराज में काम करता है। आस पास हो रहे घटना क्रम के कारण उसे समाज, गुंडा, आतंकवादी, नेता, मंत्री, भ्रष्ट सरकारी तंत्र आदि से उलझना पड़ता है और बार-बार मार-पीट करनी होती है। उसका परिवार और उसके मित्र सदैव उसका साथ देते हैं। जय के अपने कुछ नैतिक सिद्धांत और विचार हैं, जिन्हें वह अमल में लाता है और सभी को इस विचार को बढ़ाने के लिए प्रेरित भी करता है। अंत में पापियों का नाश होता है और सत्य की जीत होती है।

जय का विचार है कि किसी एहसान के बदले में 'थैंक यू' न बोल कर तीन आदमी की मदद करो, और उन तीनों से आग्रह करो कि उस मदद के बदले वे भी अन्य तीन की मदद करें, और फिर वे तीन अन्य तीन की।  इस तरह इंसानियत का यह सिलसिला एक शृंखला बनकर पूरी दुनिया को बदल देगा। यह एक बहुत बड़ा विचार और सन्देश है जो 'जय हो' फिल्म का सबसे सकारात्मक पक्ष है।

सच है 'थैंक यू' शब्द जितना छोटा है उसका एहसास भी उतना ही छोटा लगता है। किसी एहसान के बदले में 'थैंक यू' शब्द बोल कर या सुन कर ऐसा महसूस होता है जैसे एहसान का बदला चुकता कर दिया गया। मानो 'थैंक यू' शब्द एहसान की कीमत हो। कई बार यूँ लगता है कि 'थैंक यू' कहना मन की भावना नहीं है, बल्कि औपचारिक-सा एक शब्द है जिसे बोल कर एहसानों से मुक्ति पाई जा सकती है। सचमुच, जय के इस विचार को सभी अपना लें तो एहसानों से वास्तविक मुक्ति मिल सकती है और समाज में इंसानियत और संवेदनशीलता का प्रसार हो सकता है।

इस फिल्म में सलमान खान न सिर्फ बलिष्ठ और ताकतवर इंसान है; बल्कि बेहद भावुक और संवेदनशील इंसान भी है। उसके लिए अपना पराया जैसी कोई बात नहीं। सब लोगों की मदद के लिए वह तत्पर रहता है। दूसरों की मदद करने पर 'थैंक यू' के बदले तीन इंसान की मदद का वादा लेना, और जब उन तीनों द्वारा किसी की भी मदद के लिए आगे न आने पर जय जिस पीड़ा से गुजरता है, सलमान खान ने बहुत अच्छी तरह से अभिव्यक्त किया है। सलमान की संवेदनशीलता उनकी आँखों में दिखती है। सलमान की भावप्रवण आँखें और निश्छल हँसी किसी का भी दिल जीतने के लिए काफी है। चेहरे पर जो मासूमियत है, निःसंदेह सलमान के वास्तविक चरित्र का द्योतक है।
फिल्म का हर दृश्य और पटकथा जैसे सलमान को सोच कर ही लिखी गई हो। फाइट सीन में कहीं से भी नहीं लगता कि यह बेवजह हो; कथा-क्रम का ही हिस्सा लगता है। हाँ, इतना ज़रूर है कि मार-पीट और खून-खराबे के दृश्य बहुत ज्यादा है। एक अकेला इंसान कितना भी हौसले वाला हो या बलशाली हो, बार-बार इतने लोगों से अकेला मार कर जीत नहीं सकता। मार-पीट के लिए गुंडों की फ़ौज पर फ़ौज आती है और अकेला जय सब पर भारी पड़ता है। बस यहीं पर चूक हो गई है फिल्म निर्देशक से। खून-खराबा के अतिरेक को नज़रंदाज़ कर दें तो 'जय हो' एक अच्छी फिल्म है।

सलमान के साथ डेजी शाह की जोड़ी ख़ास नहीं जमी है। शायद अब तक सलमान की सभी नायिकाएँ बेहद खूबसूरत रही हैं, इस लिहाज़ से साधारण चेहरे वाली डेजी शाह कुछ ही दृश्यों में ठीक लगी है। सलमान खान की विशेषता है कि नए चेहरों को काम और पहचान दोनों देते हैं, शायद इसी लिए डेजी शाह को लिया हो। टी वी के अलावा कई अन्य फ़िल्मी कलाकार जिनकी पहचान ख़त्म हो रही थी, को इस फिल्म में बहुत अच्छा मौका मिला है। जितने भी पात्र इसमें शामिल किए गए हैं, सभी कथा-क्रम का हिस्सा लगते हैं, किसी की उपस्थिति जबरन नहीं लगती।

सलमान के फिल्मों की एक ख़ासियत यह भी है कि उसके कुछ गीत इतने मधुर और मनमोहक होते हैं कि सहज ही सबकी जुबान पर चढ़ जाते हैं। डांस के कुछ स्टेप्स भी ऐसे होते हैं जो आम लोगों को बहुत अच्छे लगते हैं। सलमान के फिल्मों में नैना वाले गीत खूब सराहे जाते हैं, जैसे - तेरे नैना मेरे नैनो की क्यों भाषा बोले, तेरे मस्त मस्त दो नैन, तेरे नैना दगाबाज़ रे। इस फिल्म में अब एक और नैना गीत - तेरे नैया बड़े कातिल, मार ही डालेंगे...! नैना वाले सभी गीतों के साथ सलमान का स्टेप्स... सच बड़े कातिल होते हैं!

यह फिल्म सिर्फ मनोरंजन या सलमान को देखने के लिए, सलमान की दबंग वाली छवि देखने के लिए या फिर सलमान के धाँसू डायलॉग के लिए ही नहीं बल्कि सलमान की भावुकता, गंभीरता और संवेदनशीलता को देखने के लिए भी देखा जाना आवश्यक है। साथ ही तीन इंसान की मदद करने के सन्देश को आत्मसात करने और उसे जीवन में उतारने के लिए भी यह फिल्म देखनी चाहिए। मुमकिन है इस फिल्म को देख कर कुछ लोग ही सही कम से कम किसी एक की मदद तो ज़रूर करेंगे, और वे कुछ अन्य की।

धाँसू डायलॉग - ''आम आदमी सोता हुआ शेर है, ऊँगली मत कर, जाग गया तो, चीर फाड़ देगा'' गुंडों से भिड़ते हुए जब जय के पास और कोई उपाय नहीं बचता तब चिंघाड़ते हुए वह अपने दाँतों का इस्तेमाल करता है। अहा! क्या चीर फाड़... बस कमाल है! जय हो!

एक संदेशप्रद स्वस्थ मनोरंजक जोशीले फिल्म के लिए सोहेल, सलमान के साथ ही 'जय हो' की पूरी टीम बधाई के पात्र हैं। 

-  जेन्नी शबनम (30. 1. 2014)
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